Wednesday 7 January 2015

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है।। ---- (इकबाल)


खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है।।---(इकबाल)    


यह शेर हमलोगों ने कितनी बार सुना और पढ़ा है; लेकिन मेरे लिए यह फ़क़त एक शेर नहीं बल्कि एक अकी़दा है; और मैं खुशनसीब हूँ कि मैंने इस अकी़दे पर अमल करने वाले कम से कम से कम एक शख्‍स को अच्‍छी तरह से देखा है, उनसे तालीम हासिल की है और उनकी हिदायतों पर अमल करने की भरसक कोशिश भी की है। 

मेरे गांव के पास के कस्‍बे केराकत (जिला जौनपुर, उ.प्र.) में एक कॉलिज है पब्लिक इंटर कॉलेज। यह स्‍थानीय जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा स्‍थापित एक प्राइवेट कॉलिज हुआ करता था। स्‍थान/कमरे, टीचर और संसाधन सीमित थे, विद्यार्थियों की संख्‍या ज्‍यादा। उसी कॉलिज में एक मौलवी साहब भी पढ़ाते थे जो हिंदी, अंग्रेजी, संस्‍कृत, उर्दू, अरबी, फारसी भाषाओं समेत इतिहास, नागरिकशास्‍त्र... के भी जानकार थे। गणित पढ़ाने में उनका कोई सानी नहीं था। किसी भी सवाल को इतने सहज और सरल तरीके से समझा देते थे कि भोंदू से भोंदू लड़का भी गणित में पास हो जाता था। नतीजा ये, कि जब बच्‍चे खाली होते तो मटरगश्‍ती करने के बजाय मौलवी साहब की क्‍लास में जाकर बैठ जाते। बच्‍चों की तादात इतनी होती कि बड़ा से बड़ा हॉल भी खचाखच भर जाता था। जरूरी विषयों के अलावा वे कुरान, बाइबिल, जेंदावेस्‍ता, रामायण, महाभारत, विश्‍वयुद्ध.... अनगिनत विषयों की कहानियां इतने तन्‍मय होकर सुनाते कि लगता था महर्षि वाल्‍मीकि लव-कुश को शस्‍त्र-शास्‍त्र की शिक्षा दे रहे हों। जब कभी कई दिन वो कॉलिज नहीं आते थे, तो कई बच्‍चे उनका हाल-चाल लेने उनके घर चले जाते थे। घर क्‍या, बस एक उजाड़ और जर्जर खंडहर था। दरवाजे पर हिरन जैसे कानों वाली खूबसूरत चितकबरी बकरियां और कुछ मुर्गियां हमारा इस्‍तकबाल करती थीं। कई बच्‍चे तो मौलवी साहब को कम, खूबसूरत मेमनों और चूजों को देखने ज्‍यादा जाते थे। गुरूमाता हम बच्‍चों को इतना प्‍यार करती थीं कि कई बच्‍चे तो मौलवी साहब से कम, गुरूमाता से मिलने ज्‍यादा जाते थे। वहीं पर हमने सीखा कि फिरनी क्‍या होती है, मलीदा क्‍या होता है, जर्दा, पुलाव किसे कहते हैं, शवेबारात, बारावफात का क्‍या मतलब है। ईद-बकरीद का हमें पहले से पता था।

1976 में जब मैं नौवीं कक्षा में था, तो एक दिन पता चला कि मौलवी साहब रिटायर हो गए। दरियाफ्त़ करने पर पता चला कि वे अधिकृत तौर पर इस कॉलेज के टीचर थे ही नहीं क्‍योंकि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी। वे किताबों की जिल्‍दसाजी करके, पतंग बनाके अपनी रोजी-रोटी चलाते थे। चूंकि कॉलिज में बुकक्राफ्ट भी एक विषय हुआ करता था, अत: प्रबंधन ने मौलवी साहब से गुजारिश की कि वे बच्‍चों को बुकक्राफ्ट पढ़ा/सिखा दिया करें। जब कभी किसी विषय का टीचर नहीं होता था, तो वो क्‍लास भी मौलवी साहब को सौंप दी जाती थी। धीरे-धीरे कॉलिज में मौलवी साहब की ख्‍याति बढ़ने लगी और सारे बच्‍चे उनके मुरीद बन गए। वे सिर्फ आठवीं या दसवीं पास थे, अत: मैनेजमेंट से उन्‍हें किसी अज्ञात फंड से बिना लिखापढ़ी के तनख्‍वाह मिला करती थी। तो उन्‍हें रिटायर क्‍या होना था, उनकी उम्र सत्‍तर से ऊपर तो कब की हो गयी थी, बस स्‍वास्‍थ्‍यगत कारणों से अब वे कॉ‍लेज नहीं आएंगे। हमारा दिल बैठ गया, किसी भी क्‍लास में मन नहीं लगता था। मौलवी साहब की कोई औलाद न थी। अब चूंकि कागज पर उनकी नौकरी ही नहीं थी तो उन्‍हें गेच्‍युइटी, जीपीएफ एवं पेंशन मिलने का कोई सवाल ही नहीं था। वे फिर से जिल्‍दसाजी और पतंग बनाने के काम में लग गए और उनकी गृहस्‍थी फिर अकालग्रस्‍त हो गयी। 

हमने अपने सीनियर्स के साथ एक मीटिंग की; तय पाया गया कि मौलवी साहब की आर्थिक मदद के लिए एक मुहिम चलायी जाए और उसकी शुरूआत अपने-अपने घरों से की जाए। उनके पढ़ाए जो लोग नौकरीपेशा थे, दूसरे शहरों में थे, उनकी फेहरिश्‍त बनायी गयी और उन्‍हे ख़त लिखने के लिए पोस्‍ट ऑफिस से सारे पोस्‍टकॉर्ड्स खरीद लिए गए। चार लाइन का मजनून तैयार किया गया जिसमें गुजारिश थी कि आपसे जो बन पड़े, गुरूदक्षिणा स्‍वरूप गुरूमाता को इस पते पर मनीऑर्डर कर दें। मौलवी साहब का नाम इसलिए नहीं कि वे बड़े खुद्दार इंसान थे, किसी से कोई मदद/इमदाद कुबूल नहीं करते थे। होशियार और अच्‍छी हैंडराइटिंग वाले सभी बच्‍चों को 50-50 पोस्‍टकॉर्ड्स  लिखने को दिए गए; फिर फेहरिश्‍त से पता लिखकर उन्‍हें पोस्‍ट करने का काम शुरू हुआ। इसीबीच हमारे अंशदान आ चुके थे और धनराशि शर्मनाक थी। तब स्‍थानीय दुकानदारों से चंदे मांगने का काम शुरू हुआ और धनराशि हमारे लक्ष्‍य ग्‍यारह हजार, से ऊपर हो गयी। ग्‍यारह हजार उन दिनों भी कोई बड़ी रकम तो नहीं थी, किंतु सोना लगभग साढ़े चार सौ रूपए तोला था।
  
हमारी योजना थी कि गुरूमाता को चुपके से ये रकम दी जाएगी और उनसे अर्ज किया जाएगा कि जब मौलवी साहब अच्‍छे मूड में हों तब उन्‍हें यह पैसा देकर उनसे हमारी ओर से गुजारिश करें कि वे अपने घर में ही किताब-कॉपी की दुकान खोल लें जहां से हम सारे बच्‍चे खरीदारी किया करेंगे; इस तरह उनकी रोजी-रोटी चलती रहेगी। इस घटना के महीनों बाद, एक दिन जब गुरूमाता ने उन्‍हें उन पैसों के बारे में बताया तो वे भड़क उठे। गुरूमाता ने हम बच्‍चों का वास्‍ता देकर, हमारी मुहब्‍बत की दुहाई देकर उसे गुरूदक्षिणा बताया तो उनका गुस्‍सा दूसरे जाविए से बरसा-  तुम इतनी बड़ी रकम छुपाकर दुकान खोलने का ख्‍वाब देख रही थी, तुम्‍हें ये होश नहीं आया कि अब हमपे हज नाजल हो गया है? उन पैसों से वे गुरूमाता को लेकर हज करने चले गए और उनकी माली हालत वही रही। अब हमनें तय किया कि हममें से जो भी ट्यूशन पढ़़ना चाहता है वो मौलवी साहब से पढ़े और फीस गुरूमाता को दे। 

इसबीच हमारे लिखे पोस्‍टकॉर्ड्स रंग लाने लगे थे; उनके घर सीधे मनीऑर्डर आने लगे। वे जब तक जीए, सुख से जीए। जब उनका इंतकाल हुआ तो ये ख़बर जंगल के आग की तरह फैली और उनके जनाजे में आसपास के पचासों गांवों के उनके शिष्‍य शरीक हुए थे। जब उन्हें सुपर्दे ख़ाक किया गया तो दो-दो मुठ्ठी मिट्टी से ही पहाड़ सा खड़ा हो गया था। गुरूमाता भी जब जन्‍नतमकानी हुईं, तब भी ऐसा ही मंजर था। स्‍थानीय पोस्‍टमैन ने मुझे बताया था कि गुरूमाता के मरने के बाद भी सालों तक उनके मुरीदों/बच्‍चों/शिष्‍यों/शागिर्दों के मनीऑर्डर आते रहे और बैरंग वापस होते रहे। जब कभी हम उस कब्रिस्‍तान से गुजरते हैं तो श्रद्धा से सर झुक जाता है। क्‍या यह नमन सिर्फ मौलवी साहब और गुरूमाता के लिए होता है? शायद यह उनके बहाने उस सारे समुदाय, उस सारी कौम को नमन होता है जिसमें ऐसी शख्सियत पैदा हुई थी। प्रश्‍न ये भी उठता है कि क्‍या मौलवी साहब के पास सचमुच कोई औलाद नहीं थी? अगर हमारे मौलवी साहब नावल्‍द थे, तो मैं सारी कायनात को नावल्‍द मानूंगा।

                                                 -- शशिकान्‍त सिंह
                                                     07.01.2015 
 

Thursday 13 November 2014

जला के मार दी बेटी, चलो ये चलता है; है खुशनसीबी कि दामाद बहुत अच्‍छा है.....



                   ग़ज़ल
लबों पे सबके है फरियाद, बहुत अच्‍छा है
हर ओर दंगे और फसाद, बहुत अच्‍छा है

सुना है सोच भली रख्‍खो तो भला होगा
मैं दे रहा हूँ इसकी दाद, बहुत अच्‍छा है

क़फ़स में घुटता है दम कुछ नहीं है खाने को
यही सुकूं है कि सैय्याद बहुत अच्‍छा है

जला के मार दी बेटी, चलो ये चलता है
है खुशनसीबी कि दामाद बहुत अच्‍छा है

अमन के ज़लवे ज़रा मेरी बस्‍ती में देखो
है क़ब्रगाह, पर आबाद बहुत अच्‍छा है

उगे चमन में जो बिरवे, जड़ों में उनकी तुम
दिए जो नफ़रतों की खाद, बहुत अच्‍छा है

सिला था ज़ख्‍म के होठों को तूने चारागर
बने वो आज ज़हरबाद, बहुत अच्‍छा है

नहीं थे तुम तो पुरसकून ये फि़जांएं थीं
दिखे हो इतने दिनों बाद, बहुत अच्‍छा है

निकल रहे हैं सभी वादे खोखले-झूठे
कहेंगे लोग मुर्दाबाद, बहुत अच्‍छा है

                      -- शशिकान्‍त सिंह

Wednesday 12 November 2014

तू अमृत पास रख अपने, पिलाना देवताओं को ...

मैं तुमसे ये नहीं कहता मेरी किस्‍मत बदल दे तू
कमल सा खिल सकूं कीचड़ में, बस इतनी अक़ल दे तू

मैं अपनी राह के कांटों को फूलों में बदल लूंगा
न कर फूलों की बारिश, बाजुओं में मेरे बल दे तू

अगर तू है ख़ुदा तो याद रख ख़ुद्दार हूँ मैं भी
न दे तू भीख मुझको बस मेरी मेहनत का फल दे तू

तुम्‍हारी ही अमानत जिंदगी है, मौत तो भ्रम है
नहीं मैं मौत से डरता, अभी दे चाहे कल दे तू

तू अमृत पास रख अपने, पिलाना देवताओं को
कि मैं शंकर बनूंगा, तू हलाहल दे गरल दे तू  
                                    -- शशिकान्‍त सिंह