खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है।।---(इकबाल)
यह शेर
हमलोगों ने कितनी बार सुना और पढ़ा है; लेकिन मेरे लिए यह फ़क़त
एक शेर नहीं बल्कि एक अकी़दा है;
और मैं खुशनसीब हूँ कि मैंने इस अकी़दे पर अमल करने वाले कम से कम से कम एक शख्स को अच्छी तरह से देखा है, उनसे तालीम
हासिल की है और उनकी हिदायतों पर अमल करने की भरसक कोशिश भी की है।
मेरे गांव
के पास के कस्बे केराकत (जिला जौनपुर, उ.प्र.) में एक कॉलिज है पब्लिक इंटर
कॉलेज। यह स्थानीय जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा स्थापित एक प्राइवेट
कॉलिज हुआ करता था। स्थान/कमरे, टीचर और संसाधन सीमित थे, विद्यार्थियों की संख्या
ज्यादा। उसी कॉलिज में एक मौलवी साहब भी पढ़ाते थे जो हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, अरबी, फारसी
भाषाओं समेत इतिहास, नागरिकशास्त्र...
के भी जानकार थे। गणित पढ़ाने में उनका कोई सानी नहीं था। किसी भी सवाल को इतने
सहज और सरल तरीके से समझा देते थे कि भोंदू से भोंदू लड़का भी गणित में पास हो जाता था। नतीजा ये, कि जब बच्चे खाली होते तो मटरगश्ती करने के बजाय मौलवी साहब की क्लास में जाकर बैठ जाते। बच्चों की तादात
इतनी होती कि बड़ा से बड़ा हॉल भी खचाखच भर जाता था। जरूरी विषयों के अलावा वे कुरान, बाइबिल, जेंदावेस्ता,
रामायण, महाभारत, विश्वयुद्ध.... अनगिनत विषयों की कहानियां इतने तन्मय होकर
सुनाते कि लगता था महर्षि वाल्मीकि लव-कुश को शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा दे
रहे हों। जब कभी कई दिन वो कॉलिज नहीं आते थे, तो कई बच्चे
उनका हाल-चाल लेने उनके घर चले जाते थे। घर क्या, बस एक उजाड़ और जर्जर खंडहर था। दरवाजे पर हिरन जैसे कानों वाली खूबसूरत चितकबरी बकरियां और कुछ
मुर्गियां हमारा इस्तकबाल करती थीं। कई बच्चे तो मौलवी साहब को कम, खूबसूरत
मेमनों और चूजों को देखने ज्यादा जाते थे। गुरूमाता हम बच्चों को इतना
प्यार करती थीं कि कई बच्चे तो मौलवी साहब से कम, गुरूमाता से मिलने ज्यादा
जाते थे। वहीं पर हमने सीखा कि फिरनी क्या होती है, मलीदा क्या होता है, जर्दा, पुलाव किसे कहते हैं, शवेबारात, बारावफात का क्या मतलब है। ईद-बकरीद का हमें पहले से पता था।
1976 में जब
मैं नौवीं कक्षा में था, तो एक दिन पता चला कि मौलवी साहब रिटायर हो गए। दरियाफ्त़
करने पर पता चला कि वे अधिकृत तौर पर इस कॉलेज के टीचर थे ही नहीं क्योंकि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी। वे किताबों की जिल्दसाजी करके, पतंग बनाके अपनी
रोजी-रोटी चलाते थे। चूंकि कॉलिज में बुकक्राफ्ट भी एक विषय हुआ करता था, अत:
प्रबंधन ने मौलवी साहब से गुजारिश की कि वे बच्चों को बुकक्राफ्ट पढ़ा/सिखा दिया
करें। जब कभी किसी विषय का टीचर नहीं होता था, तो वो क्लास भी मौलवी साहब को सौंप
दी जाती थी। धीरे-धीरे कॉलिज में मौलवी साहब की ख्याति बढ़ने लगी और सारे बच्चे
उनके मुरीद बन गए। वे सिर्फ आठवीं या
दसवीं पास थे, अत: मैनेजमेंट से उन्हें
किसी अज्ञात फंड से
बिना लिखापढ़ी के तनख्वाह मिला करती थी।
तो उन्हें रिटायर
क्या होना था, उनकी उम्र सत्तर से ऊपर तो कब की हो गयी थी, बस स्वास्थ्यगत
कारणों से अब वे कॉलेज नहीं आएंगे। हमारा
दिल बैठ गया, किसी भी क्लास में मन नहीं लगता था। मौलवी साहब की कोई औलाद न थी। अब चूंकि कागज पर उनकी नौकरी
ही नहीं थी तो उन्हें गेच्युइटी, जीपीएफ एवं पेंशन मिलने का कोई सवाल ही नहीं
था। वे फिर से जिल्दसाजी और पतंग बनाने के काम में लग गए और उनकी गृहस्थी फिर अकालग्रस्त
हो गयी।
हमने अपने सीनियर्स के साथ एक मीटिंग की; तय पाया गया कि मौलवी साहब की आर्थिक मदद के लिए एक मुहिम चलायी जाए और उसकी शुरूआत अपने-अपने घरों से की जाए। उनके पढ़ाए जो लोग नौकरीपेशा थे, दूसरे शहरों में थे, उनकी फेहरिश्त बनायी गयी और उन्हे ख़त लिखने के लिए पोस्ट ऑफिस से सारे पोस्टकॉर्ड्स खरीद लिए गए। चार लाइन का मजनून तैयार किया गया जिसमें गुजारिश थी कि आपसे जो बन पड़े, गुरूदक्षिणा स्वरूप गुरूमाता को इस पते पर मनीऑर्डर कर दें। मौलवी साहब का नाम इसलिए नहीं कि वे बड़े खुद्दार इंसान थे, किसी से कोई मदद/इमदाद कुबूल नहीं करते थे। होशियार और अच्छी हैंडराइटिंग वाले सभी बच्चों को 50-50 पोस्टकॉर्ड्स लिखने को दिए गए; फिर फेहरिश्त से पता लिखकर उन्हें पोस्ट करने का काम शुरू हुआ। इसीबीच हमारे अंशदान आ चुके थे और धनराशि शर्मनाक थी। तब स्थानीय दुकानदारों से चंदे मांगने का काम शुरू हुआ और धनराशि हमारे लक्ष्य ग्यारह हजार, से ऊपर हो गयी। ग्यारह हजार उन दिनों भी कोई बड़ी रकम तो नहीं थी, किंतु सोना लगभग साढ़े चार सौ रूपए तोला था।
हमने अपने सीनियर्स के साथ एक मीटिंग की; तय पाया गया कि मौलवी साहब की आर्थिक मदद के लिए एक मुहिम चलायी जाए और उसकी शुरूआत अपने-अपने घरों से की जाए। उनके पढ़ाए जो लोग नौकरीपेशा थे, दूसरे शहरों में थे, उनकी फेहरिश्त बनायी गयी और उन्हे ख़त लिखने के लिए पोस्ट ऑफिस से सारे पोस्टकॉर्ड्स खरीद लिए गए। चार लाइन का मजनून तैयार किया गया जिसमें गुजारिश थी कि आपसे जो बन पड़े, गुरूदक्षिणा स्वरूप गुरूमाता को इस पते पर मनीऑर्डर कर दें। मौलवी साहब का नाम इसलिए नहीं कि वे बड़े खुद्दार इंसान थे, किसी से कोई मदद/इमदाद कुबूल नहीं करते थे। होशियार और अच्छी हैंडराइटिंग वाले सभी बच्चों को 50-50 पोस्टकॉर्ड्स लिखने को दिए गए; फिर फेहरिश्त से पता लिखकर उन्हें पोस्ट करने का काम शुरू हुआ। इसीबीच हमारे अंशदान आ चुके थे और धनराशि शर्मनाक थी। तब स्थानीय दुकानदारों से चंदे मांगने का काम शुरू हुआ और धनराशि हमारे लक्ष्य ग्यारह हजार, से ऊपर हो गयी। ग्यारह हजार उन दिनों भी कोई बड़ी रकम तो नहीं थी, किंतु सोना लगभग साढ़े चार सौ रूपए तोला था।
हमारी योजना थी कि गुरूमाता को चुपके से ये रकम दी जाएगी और उनसे अर्ज किया
जाएगा कि जब मौलवी साहब अच्छे मूड में हों तब उन्हें यह पैसा देकर उनसे हमारी ओर
से गुजारिश करें कि वे अपने घर में ही किताब-कॉपी की दुकान खोल लें जहां से हम
सारे बच्चे खरीदारी किया करेंगे; इस तरह उनकी रोजी-रोटी चलती रहेगी। इस घटना के
महीनों बाद, एक दिन जब गुरूमाता ने उन्हें उन पैसों के बारे में बताया तो वे भड़क
उठे। गुरूमाता ने हम बच्चों का वास्ता देकर, हमारी मुहब्बत की दुहाई देकर उसे
गुरूदक्षिणा बताया तो उनका गुस्सा दूसरे जाविए से बरसा- तुम इतनी बड़ी रकम छुपाकर दुकान खोलने का ख्वाब
देख रही थी, तुम्हें ये होश नहीं आया कि अब हमपे हज नाजल हो गया है? उन पैसों से वे गुरूमाता को लेकर हज करने चले गए और उनकी
माली हालत वही रही। अब हमनें तय किया कि हममें से जो भी ट्यूशन पढ़़ना चाहता है वो
मौलवी साहब से पढ़े और फीस गुरूमाता को दे।
-- शशिकान्त सिंह
07.01.2015
शशिकान्त जी, लेख पढ़कर मज़ा आ गया। लेकिन यह जनवरी का लेख है, कुछ नया भी डाल दीजिए।
ReplyDeleteरजनीश
शशिकान्त जी, लेख पढ़कर मज़ा आ गया। लेकिन यह जनवरी का लेख है, कुछ नया भी डाल दीजिए।
ReplyDeleteरजनीश