Thursday, 13 November 2014

जला के मार दी बेटी, चलो ये चलता है; है खुशनसीबी कि दामाद बहुत अच्‍छा है.....



                   ग़ज़ल
लबों पे सबके है फरियाद, बहुत अच्‍छा है
हर ओर दंगे और फसाद, बहुत अच्‍छा है

सुना है सोच भली रख्‍खो तो भला होगा
मैं दे रहा हूँ इसकी दाद, बहुत अच्‍छा है

क़फ़स में घुटता है दम कुछ नहीं है खाने को
यही सुकूं है कि सैय्याद बहुत अच्‍छा है

जला के मार दी बेटी, चलो ये चलता है
है खुशनसीबी कि दामाद बहुत अच्‍छा है

अमन के ज़लवे ज़रा मेरी बस्‍ती में देखो
है क़ब्रगाह, पर आबाद बहुत अच्‍छा है

उगे चमन में जो बिरवे, जड़ों में उनकी तुम
दिए जो नफ़रतों की खाद, बहुत अच्‍छा है

सिला था ज़ख्‍म के होठों को तूने चारागर
बने वो आज ज़हरबाद, बहुत अच्‍छा है

नहीं थे तुम तो पुरसकून ये फि़जांएं थीं
दिखे हो इतने दिनों बाद, बहुत अच्‍छा है

निकल रहे हैं सभी वादे खोखले-झूठे
कहेंगे लोग मुर्दाबाद, बहुत अच्‍छा है

                      -- ©शशिकान्‍त सिंह

Wednesday, 12 November 2014

तू अमृत पास रख अपने, पिलाना देवताओं को ...

मैं तुमसे ये नहीं कहता मेरी किस्‍मत बदल दे तू
कमल सा खिल सकूं कीचड़ में, बस इतनी अक़ल दे तू

मैं अपनी राह के कांटों को फूलों में बदल लूंगा
न कर फूलों की बारिश, बाजुओं में मेरे बल दे तू

अगर तू है ख़ुदा तो याद रख ख़ुद्दार हूँ मैं भी
न दे तू भीख मुझको बस मेरी मेहनत का फल दे तू

तुम्‍हारी ही अमानत जिंदगी है, मौत तो भ्रम है
नहीं मैं मौत से डरता, अभी दे चाहे कल दे तू

तू अमृत पास रख अपने, पिलाना देवताओं को
कि मैं शंकर बनूंगा, तू हलाहल दे गरल दे तू  
                                    -- शशिकान्‍त सिंह

Saturday, 1 November 2014

कैसे कह दूं तेरे जाने का ग़म ज़रा ना हुआ?


कैसे कह दूं तेरे जाने का ग़म ज़रा ना हुआ?
कौन सा ज़ख्‍़म बचा ऐसा जो हरा ना हुआ?
ख़ता मेरी थी भला तुमको दोष दूं कैसे
तुम तो पंक्षी थे, मेरा दिल ही पिंजरा ना हुआ।।

Tuesday, 28 October 2014

रंग-बिरंगे आंसू


रंग-बिरंगे आंसू

तुलसीदास जी ने लिखा है कि ‘‘धीरज, धरम, मित्र अरु नारी, आपतकाल परखिए चारी’’। इससे मेरे मन में जिज्ञासा हुई कि अगर सारे ही रिश्‍तों को परखना हो तो किस कसौटी का प्रयोग किया जाए। जहां तक मित्र और नारी की बात है, तो आपको किसी आपातकाल का इंतजार करने की जरूरत नहीं है, अपने मित्र और अपनी नारी को कुछ समय एकांत में छोड़ दें तो सबसे पहले तो आपके धीरज की ही परीक्षा हो जाएगी। एकांत के कारण उन दोनों में जो भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन होंगे, उसे देखकर आपके मन में जो विचार आएंगे वही आपका धर्म होगा। यह कविता मैंने मजा़क में लिखनी शुरू की थी; लेकिन जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता गया, हास्‍य रस, करूण रस में परिवर्तित होता गया। सालों के प्रयास के बाद यह रचना पूरी हुई किन्‍तु यह अपने जन्‍म से ही विवादों के घेरे में आ गयी। मित्र कहने लगे कि मैंने मित्रों के साथ न्‍याय नहीं किया है तो कई रिश्‍तेदारों का विचार था कि मैंने इस-उस रिश्‍ते के साथ न्‍याय नहीं किया है।

मेरी एक महिला मित्र ने तो यहां तक कह दिया कि आपने सिर्फ Inherited relations के साथ न्‍याय किया है, Acquired relations के साथ सरासर बेइमानी की है..। सच पूछिए तो मैं आजतक यह नहीं समझ पाया कि क्‍या सचमुच मैंने किसी रिश्‍ते के साथ बेईमानी की है। इस कविता से कई मंचों पर मेरी भावनात्‍मक कमजोरी भी उजागर हो गयी। कुछ रिश्‍तों के आंसुओं का वर्णन करने से पहले ही मेरा कंठ रूंध गया और मैं फूट-फूटकर रो पड़ा। ऐसा मेरे साथ एक बार नहीं, तीन-तीन बार हुआ। फिर झल्‍लाकर मैंने इस कविता को दफ़न ही कर दिया। मेरे बड़े पुराने मित्र श्री नीरज सैनी, जो आजकल भारतीय दूतावास, मस्‍कट, ओमान में तैनात हैं और इस कविता को एकबार सुन चुके हैं, कल इस कविता की फर्माइश कर बैठे। अब इस कविता का ओरिजिनल ड्राफ्ट तक मेरे पास नहीं है। आज अपनी स्‍मृति के आधार पर, दशकों बाद इस कविता को पुन: टाइप करके आपकी अदालत में पेश कर रहा हूँ। आप लोग खुद फैसला करें कि मैंने किस रिश्‍ते के साथ न्‍याय और किसके साथ बेईमानी की है।

 
रंग-बिरंगे आंसू

एक युवक की मौत पर शोकाकुल हैं लोग
कुछ तो दिल से रो रहे, कुछ करते हैं ढोंग
कुछ करते हैं ढोंग मित्र, भाई, और जीजा
दादा, बुआ, पिता, मां, पत्‍नी और भतीजा
उसके शव पर गिरते रंग-बिरंगे आंसू
किस आंसू का क्‍या मतलब, देखें जिज्ञासू।।

मित्र
कर्ज दिया यह सोचकर, कर देगा भुगतान
कर्ज चुकाया भी नहीं, चला गया बेइमान
चला गया बेइमान, न कोई लिखा-पढ़ी की
इसको कर्जा देकर मैंने भूल बड़ी की
मरकर यह कम्‍बख्‍त़ कर गया मेरा घाटा
जी करता है मरने पर भी मारूं चाटा।।

पत्‍नी
मेरे साथ लगा गए फेरे पूरे सात
सात साल पूरे नहीं, छोड़ गए तुम साथ
छोड़ गए तुम साथ, कहूं मैं डरते-डरते
मरना था, तो बीमा तो करवा कर मरते
सुख के बदले तुमने मुझको दी है पीड़ा
जा निर्मोही घोर नर्क में बनकर कीड़ा।।

भाई
तू मेरा यंगर ब्रदर, रहा बहुत शैतान
सदा तिरस्‍कृत मैं रहा, तेरा ही था मान
तेरा ही था मान, मैं सोचूं लेटे-लेटे
कैसे तेरी शक्‍ल़ पा गए मेरे बेटे ?
मरा छोड़कर वारिस, सांप हृदय पर लोटा
अगर कुंवारा मरता तो मैं दिल से रोता।।

भाभी
शादी मेरी बहन से, किया नहीं नादान
नागिन से शादी हुई, जाने ही थे प्रान
जाने ही थे प्रान, यही उपकार किया था
मेरे बच्‍चों को तू सच्‍चा प्‍यार किया था
अब देवरानी जी की गुम है सिट्टी-पिट्टी
खुशी और ग़म दोनों मुझको फिफ्टी फिफ्टी।।

 जीजा
कहता रहता था यही, सबसे बारम्‍बार
जीजाजी को कार दूं, और बहन को हार
और बहन को हार, अगर जन्‍मेगा बेटा
मेरा क्रीमी स्‍वप्‍न हो गया है सेपरेटा
मरकर इसने मेरे हक़ पर डाका डाला
बेटा जन्‍मा नहीं, मर गया पहले साला!!

बहन
कर्मवती को छोड़कर, गया हुमायूं भाग
सिन्‍दुर भाभी का मिटा, मांग भर गया आग
मांग भर गया आग, भाग गुड़िया का फूटा
ये मत सोच बहन-भाई का रिश्‍ता टूटा
खाती हूँ मैं कसम ख़ुदा है इसका साखी
आती हूँ मैं स्‍वर्ग हाथ में लेकर राखी।।

बुआ
अपने हाथों से तुझे पाला मैंने लाल
तेरी मां से भी बुरा, हुआ बुआ का हाल
हुआ बुआ का हाल, मृत्‍यु ने तुम्‍हें समेटा
तुझे छोड़ दे, ले जाए वह मेरा बेटा
यम का पत्‍थर हृदय हाय क्‍यों नहीं पसीजा?
बुआ-पिंजरा तोड़, ले गया सुआ भतीजा।।

मा
बिस्‍तर तो गीला किया बचपन में दिनरात
आंखें गीली कर गया, कैसे सहूं ये घात
कैसे सहूं ये घात, दूध का कर्ज चुकाते
माँ की अर्थी को तुम कंधा तो दे जाते
टूटी मेरी कमर झुलाते तुझको पलना
ममता में क्‍या कमी हुई जो रूठा ललना?

दादा
इसी गोद में तुम पले, और तुम्‍हारा बाप
बदले में तुम दे गए मुझको ये संताप ?
मुझको ये संताप, कि चश्‍मा, घड़ी हमारी
खेल-खेल में तोड़ी कितनी छड़ी हमारी
मैं ज़र्ज़र, लाचार, अपाहिज, बूढ़ा, अंधा
कमर तोड़कर मांग रहे हो मुझसे कंधा?


पिता
बचपन में चलते रहे पकड़े मेरा हाथ
बारी आयी जब मेरी, छोड़ गए तुम साथ?
छोड़ गए तुम साथ, ये अक्‍सर हो जाता था
आकर मेरे बिस्‍तर पर तू सो जाता था
आज हिसाब-किताब बराबर हो जाएगा
बूढ़ा पिता चिता पर तेरी सो जाएगा!
                       -- ©शशिकान्‍त सिंह

Monday, 27 October 2014

33 साल पहले साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान में प्रकाशित मेरी 2 "बेतुकी" 😂 कविताएं...


लाख प्रयासों के बावजूद अतुकांत कविता या छंदमुक्‍त कविता का मैं कभी पक्षधर नहीं हो सका। मैं अतुकांत कविता को बेतुकी कविता कहना पसंद करता था। मेरे मित्र जो ऐसी कविताएं लिखते थे, मेरी बात का बुरा मानते थे और एक ने तो यहां तक कह दिया कि आप मात्राएं गिनकर आचार्य बन सकते हैं, लेकिन ऐसी कविता लिख ही नहीं सकते। आज से 33 साल पहले उस दिन ऑफिस से घर जाते समय चार्टर्ड बस में ही दो कविताएं लिख डाली और अगले दिन उसे प्रकाशन के लिए पोस्‍ट कर दिया। वे दोनों रचनाएं साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान के 1 मार्च, 1992 अंक के पृष्‍ठ 37 पर प्रकाशित हुईं। घर की सफाई के दौरान उनकी फोटो कॉपी मेरे हाथ लगी है जिसे अपने मित्रों की सेवा में पुन: प्रस्‍तुत कर रहा हूँ:  

 

33 साल पहले ''सरिता'' में प्रकाशित मेरी एक व्‍यंग्‍य रचना...


एक ज़माना था जब मैं व्‍यंग्‍यकारों का ज़बरदस्‍त फैन था। अंग्रेजी में जोनाथन स्विफ्ट, जॉन ड्राइडेन, अलेक्‍जेंडर पोप, एडगर अलेन पो, विलियम मैकपीस थैकरे, चार्ल्‍स डिकेंस.... तो हिन्‍दी में श्रीलाल शुक्‍ल, हरिशंकर परसाईं, के पी सक्‍सेना, शरद जोशी, प्रेम जनमेजय, मनोहर लाल... आदि। उसी रौ में बहकर मैं भी व्‍यंग्‍य लिखने लगा था। इस साल दीवाली की सफाई के दौरान मेरी बेटी के हाथ मेरी एक व्‍यंग्‍य रचना की कतरन लग गयी जो आज से लगभग 33 साल पहले सरिता में प्रकाशित हुई थी। इसे स्‍कैन करके अपने चाहने वालों की खिदमत में पेश कर रहा हूँ:  




 

Wednesday, 15 October 2014

सख्‍त़ कांटों पे जो भी पलता है, फूल सा वो ही जग में खिलता है...

 
सख्‍त़ कांटों पे जो भी पलता है
फूल सा वो ही जग में खिलता है
वक्‍त़ जब हाथ से निकल जाए
आदमी सिर्फ हाथ मलता है
देर हमको ही हो गयी होगी
चांद तो वक्‍त़ पर निकलता है
रेत पर चलने के जो आदी हैं
पैर उनका अधिक फिसलता है
तीरगी में शमा जलाए जो
हाथ अक़्सर उसी का जलता है
सब बंटे हैं मतों औ मजहब में
आज इंसां कहीं न मिलता है
दूसरों से नहीं परेशानी
मेरा आना सभी को खलता है             
               -- शशिकान्‍त सिंह
 

जो बोतल और मुर्गे पर कभी ईमां नहीं खोया, वो बेबस हो गया है रेशमी सलवार के आगे


न रो पाओगे तुम दुखड़ा कभी सरकार के आगे
भला किसकी चली है उनके पहरेदार के आगे

मेरी बेटी को कुछ गुंडे उठाकर ले गए, चलिए
ये बुधुवा कह नहीं पाता है थानेदार के आगे

अरे मक़तूल, वो क़ातिल तुम्‍हारा बच ही निकलेगा
अदालत घुटने पर है उसके पैरोकार के आगे

वो रेहन खेत, जर्जर घर, वही अनब्‍याही बेटी है
यही मंज़र रहा करता है इज्‍ज़तदार के आगे

जो बोतल और मुर्गे पर कभी ईमां नहीं खोया
वो बेबस हो गया है रेशमी सलवार के आगे  

वही सच बन चुका है जो छपा अख़बार में उनके
कि सच गूंगा खड़ा है आज उस अख़बार के आगे

मैं इक सूखी नदी हूँ और इतने लोग प्‍यासे हैं
मैं बेबस पड़ी हूँ पानी के व्‍यापार के आगे

शरीर और आत्‍मा की जंग में अक्‍सर मैं पिसता हूँ
मकां झुकता नहीं अपने किराएदार के आगे 

                                --  ©शशिकांत सिंह