Wednesday 15 October 2014

जो बोतल और मुर्गे पर कभी ईमां नहीं खोया, वो बेबस हो गया है रेशमी सलवार के आगे


न रो पाओगे तुम दुखड़ा कभी सरकार के आगे
भला किसकी चली है उनके पहरेदार के आगे

मेरी बेटी को कुछ गुंडे उठाकर ले गए, चलिए
ये बुधुवा कह नहीं पाता है थानेदार के आगे

अरे मक़तूल, वो क़ातिल तुम्‍हारा बच ही निकलेगा
अदालत घुटने पर है उसके पैरोकार के आगे

वो रेहन खेत, जर्जर घर, वही अनब्‍याही बेटी है
यही मंज़र रहा करता है इज्‍ज़तदार के आगे

जो बोतल और मुर्गे पर कभी ईमां नहीं खोया
वो बेबस हो गया है रेशमी सलवार के आगे  

वही सच बन चुका है जो छपा अख़बार में उनके
कि सच गूंगा खड़ा है आज उस अख़बार के आगे

मैं इक सूखी नदी हूँ और इतने लोग प्‍यासे हैं
मैं बेबस पड़ी हूँ पानी के व्‍यापार के आगे

शरीर और आत्‍मा की जंग में अक्‍सर मैं पिसता हूँ
मकां झुकता नहीं अपने किराएदार के आगे 

                                    --  शशिकांत सिंह

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