सख्त़ कांटों पे जो भी पलता है
फूल सा वो ही जग में खिलता है
वक्त़ जब हाथ से निकल जाए
आदमी सिर्फ हाथ मलता है
देर हमको ही हो गयी होगी
चांद तो वक्त़ से निकलता है
रेत पर चलने के जो आदी हैं
पैर उनका अधिक फिसलता है
तीरगी में शमा जलाए जो
हाथ अक्सर उसी का जलता है
सब बंटे हैं मतों औ’ मजहब में
आज इंसां कहीं न मिलता है
दूसरों से नहीं परेशानी
मेरा आना सभी को खलता है
-- शशिकान्त सिंह
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