एक जमाना था जब मैं व्यंग्यकारों का जबरदस्त फैन था।
अंग्रेजी में जोनाथन स्विफ्ट, जॉन ड्राइडेन, अलेक्जेंडर पोप, एडगर अलेन पो,
विलियम मैकपीस थैकरे, चार्ल्स डिकेंस.... तो हिन्दी में श्रीलाल शुक्ल, हरिशंकर
परसाईं, के पी सक्सेना, शरद जोशी, प्रेम जनमेजय, मनोहर लाल... आदि। उसी रौ में
बहकर मैं भी व्यंग्य लिखने लगा था। इस साल दीवाली की सफाई के दौरान मेरी बेटी के
हाथ मेरी एक व्यंग्य रचना की कतरन लग गयी जो आज से लगभग 22 साल पहले सरिता में
प्रकाशित हुई थी। इसे स्कैन करके अपने चाहने वालों की खिदमत में पेश कर रहा हूँ:
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