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आशिक़ी की मेरी बस कहानी यही
ख्व़ाहिशें उम्र भर छटपटाती रहीं
रास्ते हौसले आज़माते रहे
मंजिलें दूर से मुस्कराती रहीं।।
आगे-आगे मेरी कमनसीबी चली
पीछे-पीछे चलीं मेरी नाका़मियां
जब भी उम्मीद की कोई शम्मा जली
आंधियां आके उनको बुझाती रहीं।।
फ़र्ज़ और इश्क़ में बंट के हम रह गए
तन किसी को मिला, मन किसी को मिला
मेरे अरमानों की क़ब्र ये दिल बना
धड़कनें फा़तिहा गुनगुनाती रहीं।।
याद आयी जो तेरी हवा की तरह
दिल के ज़ख्म़ों ने हंसकर बिठाया उन्हें
मेरी आंखों को इतनी मसर्रत हुई
दोनों हाथों से मोती लुटाती रहीं।
ग़र्द की तह जमी तेरी तस्वीर पे
पोछनें से भी आयी न उसपे चमक
मेरी आंखों की तरक़ीब काम आ गयी
गर्म पानी की बूंदें गिराती रहीं।।
सालों पहले जो तूने लिखे थे, वो ख़त
शामे-तनहाई में यूं ही पढ़ने लगा
आंसुओं से लिखे दिल के ज़ज्बात को
आंसुओं की लकी़रें मिटाती रहीं।।
एक रात उस जगह भी चला मैं गया
जिस जगह पे कभी छुपके मिलते थे हम
एक रात उस जगह भी चला मैं गया
तुम न आए नज़र, पर मेरे कानों में
कांच की चूड़ियां खनखनाती रहीं।।
मेरे महबूब तुम बस सलामत रहो
शाद-ओ-आबाद तुम ताक़यामत रहो
हो क़यामत तो शायद मुलाकात हो
ये सदाएं मेरे दिल से आती रहीं।।
---शशिकान्त सिंह
---शशिकान्त सिंह
बहुत ही शानदार रचना है शशिकान्त जी। पढ़कर मज़ा आ गया।
ReplyDeleteधन्यवाद दुबे जी। यह रचना मैंने शायद 25 साल पहले लिखी थी। उस दिन अचानक उसका ड्राफ्ट हाथ लग गया। इतने दिनों के बाद भी पढ़ने पर अच्छी लगी तो पोस्ट कर दिया। सराहना के लिए आपका आभार। इसको 'जिंदगी का सफर, एक ऐसा सफर...' की धुन पर गुनगुनाकर देखिए, और मज़ा आएगा...
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