13 दिसम्बर, 2015, नैनीताल
रौंद के आएँ है कितनी मुश्किलें और अड़चनें
घोल दें अब भी फ़ज़ाओं में दिलों की धड़कनें
छू दें सूखी शाख़ को तो गुल लगेंगे महकनें
आहनी ज़ंजीर भी चटका दें ये क़दम
आपकी क़सम, आपकी क़सम !
उम्र के पलड़ों में ना तौलो दिली जज्ब़ात को
अब भी लिख देंगे लहू से अपने दिल की बात को
बर्फ़ में भर दें हरारत, लू से भर दें रात को
आशियाँ फिर से बना डालें, है वो दमख़म
आपकी क़सम, आपकी क़सम !
दे दो तुम आँचल से अपने, चाँद को कुछ चाँदनी
जुगनुओं को अपनी पेशानी से थोड़ी रोशनी
रात को गुलज़ार कर दो, दिन को कर दो शबनमी
ये ज़माले-हुस्न हो सकता ज़रा ना कम
आपकी क़सम, आपकी क़सम !
फूलों के होंठों पर लिख दूँ वो इनायत आपकी
गीता के कुछ बोल, कुछ आयत क़लामे-पाक़ की
कुछ मेरी नादानियाँ औ कुछ शरारत आपकी
आने वाली नस्लों पे भी कर दें कुछ करम
आपकी क़सम, आपकी क़सम !
वक्त की इन वादियों में जब फ़ना हो जाएँगे
रेत के ज़र्रों की माफिक ख़ाक में मिल जाएँगे
फ़ातिहे पढ़ के जहाँ वाले चले जब जाएँगे
दुनिया पे लहराएँगे दो रूहों के परचम
आपकी क़सम, आपकी क़सम !
--- ©शशि कान्त सिंह
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