ज़िंदगी अपनी कहां गुजरी ज़िंदगी की तरह
चंद लमहे थे हंसीं बाक़ी खुदकुशी की तरह
छुपा के दिल में भला कैसे रखोगे मुझको
मिज़ाज अपना है बेइंतहा खुशी की तरह
जी में आता है कि दुनिया को इक ग़ज़ल कर दें
काश होती ये क़लम जादुई छड़ी की तरह
जी हां, बन सकती है ये धरती भी जन्नत इक दिन
आदमी सीख ले गर जीना आदमी की तरह
इससे ज़्यादा हसीन मौत भला क्या होगी
किसी को चाहना और रहना अजनबी की तरह
ये ज़िंदगी की घड़ी बंद हो गयी होती
तुम्हारा प्यार मगर इसमें बैटरी की तरह
यूँ तो दुनिया में हज़ारों तरह के रिश्ते हैं
मगर नहीं है कोई रिश्ता दोस्ती की तरह
©शशि कान्त सिंह
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