Monday, 25 August 2025

तुम्हारे बिना ज़िंदगी इक सज़ा है...

30 जुलाई, 1996, पालम, नई दिल्ली

बहारों का मौसम भी लगता ख़िज़ाँ है

तुम्हारे बिना ज़िंदगी इक सज़ा है


सदा याद आतीं तुम्हारी ही बातें

ना कटते हैं दिन ना गुज़रती हैं रातें

जाऊँ कहाँ मैं जहाँ चैन आए

चारों तरफ हैं तुम्हारे ही साए

मुहब्बत में मिलता ये कैसा सिला है

तुम्हारे बिना ज़िंदगी इक सज़ा है


ये रस्में मुहब्बत की राहें कठिन हैं

सितमगर ये रातें, पहाड़ों से दिन हैं

या रब है ये कैसी, ये तेरी ख़ुदायी

ये पल भर का मिलना, ये लंबी जुदाई

कि तन्हाइयों का अजब सिलसिला है

तुम्हारे बिना ज़िंदगी इक सज़ा है


तेरे बिन हैं सूनी, ये जीवन की राहें

हैं पुरनम ये आँखें, लबों पर हैं आहें

उदासी की बदली, ये सुनसान राहें

किसी के दरस को तरसती निगाहें

बड़े कश्मकश में दिले-नातवां हैं

तुम्हारे बिना ज़िंदगी इक सज़ा है 

                     ©शशि कान्त सिंह

No comments:

Post a Comment